Ek Zamaana Guzar Gaya!

कागज़ पर रख कर खामोशी
कुछ अल्फाज़ लिये बैठा हूँ
उन दिनों के,
जिन बातों को बीते
एक ज़माना गुज़र गया!

लम्हें, कि जिनका ज़िक्र करना किसी से
अब फिज़ूल सा लगता है,
उन लम्हों में हासिल शादमानी को
एक ज़माना गुज़र गया!

खाली-खाली हाथों में मुट्ठी भर मासूमियत रख कर
सारा दिन बसर जाता,
पेड़ की छाँव में खुद की परछाई देख कर
ये दिल यूँही बहल जाता,
किताबें जब दोस्त हुआ करती थी
थोड़ी सख़्त, मगर उनके साथ मज़ा बहुत आता,
छोटी-छोटी बातों पर जब बेवजह ही
हँसना आ जाता,
ख़्यालों के पर लगा कर उड़ते जाते
और चोट लगने से पहले ही रोना आ जाता,
बड़े होने की चाहत में अक्सर
बचपना ही खो जाता!
अब बड़ा हो कर निगाहों में
वो बचपना लिये बैठ जाता हूँ,
जिस बचपन को भुलाये हुए
एक ज़माना गुज़र गया!

ज़िन्दगी के किनारे पर
कितना कुछ छूटता जाता है,
हर रात से सुबह में
कितना कुछ बदल जाता है,
एहसास भी अब आवारा हो चले है
मोड़-मोड़ पर बिखर जाते है,
धूल की तरह उड़ते है लम्हें पीछे
और वक़्त के पहिये आगे चलते जाता है,
पलकें झपकते ही दिन जाने कब
रात में ढल जाता है,
शामों वाली वो यारियों का मामूल भी
अब बस इतवार में याद आता है!
सपने रख कर किसी नज़्म में हर रात
कुछ देर इन आँखों पर पलकों के परदे रख लेता हूँ,
वो सुकून वाली नींद सोये हुए शायद
एक ज़माना गुज़र गया!

कागज़ पर रख कर खामोशी
कुछ अल्फाज़ लिये बैठा हूँ
उन दिनों के,
जिन बातों को बीते
एक ज़माना गुज़र गया!

लम्हें, कि जिनका ज़िक्र करना किसी से
अब फिज़ूल सा लगता है,
उन लम्हों में हासिल शादमानी को
एक ज़माना गुज़र गया!

– साहिल
(७ अगस्त, २०१८ – मंगलवार)

Leave a comment