Khaamoshiyon ke Raaz!

खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है
किनारों पर शामें इंतज़ार लिये बैठी है,
निगाहों में एक अश्क़ उतर आया है फ़लक से
कोई पढ़ ले इन्हें, ये ख़्वाब लिये बैठी है!

चेहरे ढूंढते है कोई अपने यहाँ
हर चेहरे पर कोई चेहरा डाले बैठी है,
सख़्त हो चले है इन लबों के लहजे
ये टूट जाने के ख़्याल से सहमी बैठी है!

काफ़िले चलने लगे है वक़्त के
सिलसिलों के कुछ सवाल लिये बैठी है,
ज़रूरतों के शहर में सुना है, कुछ आदतें
अब भी कुछ अधूरे से जवाब लिये बैठी है!

कहानी का कोई लम्हा है जैसे
ये सफहों पर एहसासों के अल्फाज़ लिये बैठी है,
लिखती जाती है कोरे कागज़ पर बेरंग सी स्याही
कोई समझ ना ले इन्हें, ये चुप-चाप बैठी है!

खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है
किनारों पर शामें इंतज़ार लिये बैठी है,
निगाहों में एक अश्क़ उतर आया है फ़लक से
कोई पढ़ ले इन्हें, ये ख़्वाब लिये बैठी है!

खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है. . .
खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है!

– साहिल

(October 2017)

Ye Diwali :)

रोशनी के रंगों की सेज सजी है
दिल की चौखट पर खुशियाँ रखी है,
दूरियाँ मिटा कर रिश्तों में
ये दिवाली अपनों को जोड़ रही है!

हर घर आज उजियारा है
हँसी की फुलझड़ियाँ और उमंगों का फंवारा है,
आँखो की चमक में हर लम्हा कैद है
ये दिवाली नई यादें जोड़ रही है!

बचपन की गलियाँ आज फिर से भरी है
शहर से सुना है, कई पुरवाईयाँ लौटी है,
यारों की टोली आज मुद्दत के बाद मिली है
ये दिवाली बचपन से जोड़ रही है!

कुछ आँखो में फिर भी नमी सी है
अपनों के दरमियाँ किसी अपने की कमी सी है,
सारी खुशियाँ अपनी जगह पर लेकिन
ये दिवाली कुछ ग़म भी जोड़ रही है!

महक रही है घर की हवायें
दीवारें भी आज नई सी है,
जल रहे है अँधेरे, दीपक की लौ में
ये दिवाली रिश्तों को जोड़ रही है!

सारी हसरतें खेल रही है
पलकों के झूले पर झूल रही है,
लौट के आया सावन मिलन का
ये दिवाली एहसास जोड़ रही है!

रोशनी के रंगों की सेज सजी है
दिल की चौखट पर खुशियाँ रखी है,
दूरियाँ मिटा कर रिश्तों में
ये दिवाली अपनों को जोड़ रही है!

– साहिल
(१९ अक्टूबर, २०१७ – गुरुवार)

दीपावली के इस पर्व पर आपकी और आपके परिवार की असीम खुशियों की कामना करते हुए आप सभी को मेरी ओर से A very Happy Diwali 🙂

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Bachpan ki Galiyan!

छूट गयी वो गलियाँ बचपन की
अब शिक़वा क्या करना,
रह गयी कई कहानियाँ वहीं
अब गिला क्या करना!

वक़्त ने जैसे चेहरे पर कई चेहरे डाल दिये
कहीं रिश्तों के, कहीं ज़रूरतों के पहरे डाल दिये,
अब वो सुबह नहीं मिलती अंगड़ाई लेती हुई
और रातें अब सुकून में नहीं ढलती,
बहुत शोर है यहाँ रिश्तों के मकान में
इन रास्तों पर अब वो सहूलियत नहीं मिलती!

लबों पर बेफ़िक्री का भी एक ज़माना था
ना कोई परवाह ना कोई बहाना था,
बड़ी खुशहाल सी चल रही थी ज़िन्दगी
जाने क्यों ज़िन्दगी को शहर की ओर बढ़ जाना था!

खैर अब नज़रें चुरा कर जी रहा हूँ
चेहरे पर चेहरे छुपा कर मिल रहा हूँ,
खो गया वो आईना जो अपना सा लगता था
ज़िन्दगी बिखर गई इक सपने में जो कभी पलकों पर सजता था!

छूट गयी वो गलियाँ बचपन की, तो
अब शिक़वा क्या करना,
रह गयी कई कहानियाँ वहीं, तो
अब गिला क्या करना!

– साहिल

(Sep’ 17)