खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है
किनारों पर शामें इंतज़ार लिये बैठी है,
निगाहों में एक अश्क़ उतर आया है फ़लक से
कोई पढ़ ले इन्हें, ये ख़्वाब लिये बैठी है!
चेहरे ढूंढते है कोई अपने यहाँ
हर चेहरे पर कोई चेहरा डाले बैठी है,
सख़्त हो चले है इन लबों के लहजे
ये टूट जाने के ख़्याल से सहमी बैठी है!
काफ़िले चलने लगे है वक़्त के
सिलसिलों के कुछ सवाल लिये बैठी है,
ज़रूरतों के शहर में सुना है, कुछ आदतें
अब भी कुछ अधूरे से जवाब लिये बैठी है!
कहानी का कोई लम्हा है जैसे
ये सफहों पर एहसासों के अल्फाज़ लिये बैठी है,
लिखती जाती है कोरे कागज़ पर बेरंग सी स्याही
कोई समझ ना ले इन्हें, ये चुप-चाप बैठी है!
खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है
किनारों पर शामें इंतज़ार लिये बैठी है,
निगाहों में एक अश्क़ उतर आया है फ़लक से
कोई पढ़ ले इन्हें, ये ख़्वाब लिये बैठी है!
खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है. . .
खामोशियाँ कई राज़ लिये बैठी है!
– साहिल
(October 2017)