भूल जा!


ना समझ कि तू समझ गया
तू भी जीने में उलझ गया,
ये जो वक़्त है बस यही है
जो बीत गया वो भूल जा!

वो शख़्स कोई और था
वो अक्स कोई और था,
दास्ताँ समझ कर सुन ले
हक़ीकत जो थी वो भूल जा!

जो राह थी वो छूट गई
जो मोड़ था वो मुड़ गया,
तू भी चल अब बेख़बर
पीछे पलटना भूल जा!

इन आँखों से उतार कर
जो शिकवें थे वो फेंकता जा,
दिल-ऐ-बेख़बर अब खुशियाँ चुन
जो ना मिली वो भूल जा!

टूट कर जुड़ना लाज़िमी है
टूट कर फिर बिखर ना जा,
जो टुकड़े मिले उन्हें जोड़ ले
जो ना जुड़े वो भूल जा!

हसरतें जो रूठ गई
मंज़िलें जो खो गई,
अब नये सपने फिर सजा
जो छूट गया वो भूल जा!

कहानी का एक हिस्सा था
सफ़हे पलटना सीख जा,
जो मुक़म्मल हुआ वो पास रख
जो ना हुआ उसे भूल जा!

ना समझ कि तू समझ गया
तू भी जीने में उलझ गया,
ये जो वक़्त है बस यही है
जो बीत गया वो भूल जा!

#PoolofPoems

~ साहिल

A Letter to 2019!

अब जो आए हो तुम
तो ज़रा ठहर कर जाना,
पलकें झपकते ही
कहीं खो ना जाना!

पिछली बार जब आए थे
तो ज़रा जल्दी में थे तुम,
हाथ में रख कर कुछ पल फकत
लौट गए थे तुम,
कितना कुछ था जो हौले-हौले होना था
कितने तंग इरादों को सुकून से सोना था,
हर रात में सुबह का
और सुबह में रात का
हर एक लम्हा पिरोना था,
मगर रफ्तार कुछ ऐसी थी
जाने कहाँ किस मोड़ किसे भूलते गए हम,
राहें बदलती गई इस कदर
रिश्तों में शक्ल-सूरत बदलते गए हम,
इससे पहले कि किनारे समझ पाते
कश्तियाँ बन बहते गए समन्दर,
वक़्त चलता रहा दोगुनी तेज़ी से
और हम भटक गए जैसे बीच मेले कोई गुमनाम बंजर!

काफी कुछ था जो तुमसे रूबरू होना था
काफी कुछ था जिसे मुक़म्मल होना था,
वो बेरंग इरादे, वो झूठे वादे,
वो अधूरी ख़्वाहिशें, वो नामंज़ूर फरमाइशें,
वो गहरे अँधेरे, वो धुँधले उजाले,
वो फ़रमान अपनों के, वो हमराज़ गैरों के,
कोरे पन्ने और रूठे हुए लफ्ज़,
एहसासों में बिखरे वो उम्र भर के कब्ज़,
तेरे संग हर राज़ को थामे रखना था
पिछली बार जब आए थे तुम
कुछ देर तुम्हें और रहना था!

ज़िन्दगी में कुछ नए रंग चढ़ चुके है
कुछ नए लहजे, कुछ नए किस्से जुड़ चुके है,
हैरान हो कर तुम सहम ना जाना
ज़िन्दगी के इस रंग को मेरी तरह अपनाना,
काफी कुछ है जो होना है तेरे साथ
मेरे कुछ सपनों में मेरा हाथ बँटाना,
ज़रूरतें भी बढ़ने लगी है जीने की
उम्मीदों के फर्श पर तुम फिसल ना जाना,
बैठ कर सुकून से सब सुलझा लेंगे धीरे-धीरे
बस तुम पिछली बार की तरह खो ना जाना,
अचानक ही लापता जो हो गए थे तुम
इस बार बिन कहे चले ना जाना,
एक-एक पल के कदम बड़े आराम से रखना
जल्दी-जल्दी में कहीं कुछ भूल ना जाना,
अब जो आए हो तुम
तो ज़रा आराम से मिलते जाना!

मुबारक हो तुम्हें
इस बार ज़रा तुम भी मुस्कुराना,
बेहतर बना कर ज़िन्दगी को
हसरतों के पूल बिछाना,
दिन में वही सफ़र करके
रात को मेरे साथ बैठ जाना,
कुछ पुरानी, कुछ नई यादों में
वक़्त की स्याही से एहसास भर जाना,
उम्मीद है सफ़र बेहतर रहेगा
तुम भी आराम से वक़्त बिताना,
अब जो आए हो तुम
तो ज़रा ठहर कर जाना,
पलकें झपकते ही
कहीं खो ना जाना!

Goodbye 2018, you gave so much!

Welcome 2019, be good 🙂

Happy New Year to all of you!

Thanks for reading 😊

~ साहिल

(31st December 2018, Monday)

Mein Parayi!

मैं पराई
सब कुछ छोड़ कर आई,
अन्जान दीवारों में
नई ज़िन्दगी सजाई!

बचपन की मासूमियत
माँ की दुलारियाँ,
पापा का लाड़
और भाई-बहनों का प्यार,
वो दीवारें जो सहेली थी मेरी
और गलियाँ जिनमें हँसी गूँजती थी मेरी,
वो आईना जो हर सुबह देख मुस्कुराता था
और वो चौखट जहाँ शामों से याराना था,
मैं उन सभी आदतों को
बहला-फुसला कर तन्हा छोड़ आई!
मैं पराई!

बाबूल के काँधे पर
मैं कितनी दफ़ा आँसू बहाई,
पलकें मीच कर हर बार की तरह
जाने कितनी हसरतों को किनारे कर आई,
दुनिया की रीत समझ कर
मैने भी ये प्रीत निभाई,
लाल जोड़े में लाली भर कर
एक बेटी होने का फर्ज़ अदा कर आई,
ये मुस्कुराहट सबको अच्छी लगी
कौन जाने इसके पीछे की सच्चाई,
किसी तरह अपना लिया खुद को
मैं खुद को खुद में कहीं भूल आई!
मैं पराई!

नये रिश्तों को मैं रिझाऊँ
नये आँगन में मैं ढल जाऊँ,
जिन हाथों ने पाला-सँवारा
उन हाथों से उतर कर किसी की लाज बन जाऊँ,
साक्षी मान कर समाज की आँखों को
मैं सारे तौर-तरीकों में बंध जाऊँ,
कुछ सपने और कुछ ख़्वाबों से पहले
मैं दुनिया भर के रंग लगाऊँ,
माथे पर रख कर लहू ख़्वाहिशों का
मैं किसी के नाम में अपना नाम मिलाऊँ,
हदों में रह कर इन गिरहों की
मैं किसी और का हक़ बन जाऊँ,
दाम लगाये ये दुनिया सारी
लेकिन बाज़ारी मैं कहलाऊँ,
वाजिब नहीं ये दिखावे ज़िन्दगी के
मगर फिर भी मैं चुप हो जाऊँ,
किस्मत का लिखा लेख मान कर
अब हर पल खुद का मन बहलाऊँ,
हाथों पर रखी लकीरों में
कुछ उम्मीदों के पल की उम्मीद कर जाऊँ,
कुछ कतरें गिरा कर, चावल उछाल कर
मैं जैसे ज़िन्दगी वही छोड़ आई,
अब आईने में देखती हूँ खुद को
तो जाने कितनी दूरियाँ निगाहों में समाई!
मैं पराई!

ना माइका, ना ससुराल
ना ही मेरी कोई परछाई,
हर खुशी में खुश हो जाऊँ, हर दुख में नम हो जाऊँ
मेरी कहीं क्या इकाई,
कितने बंधन में बंधी हुई
कितनी साँसें अन्दर से भर आई,
कह ना सकूँ अब किसी से
जाने मेरी कहाँ रिहाई,
ऐ खुदा, एक बात बता
ये कैसी रीत तूने बनाई,
बेटा बन जाये राज दुलारा
और बेटी की कर दी डोली में विदाई!
मैं पराई!

मैं पराई
सब कुछ छोड़ कर आई,
अन्जान दीवारों में
नई ज़िन्दगी सजाई!
मैं पराई, मैं पराई!

#PoolofPoems

~ साहिल
(13th December, 2018 – Thursday)

Koi Khaas Nahi!

Koi tumse puche kaun hoon mein,
Tum bas keh dena koi khaas nahi!

Ek dost hai kaccha-pakka sa
Ek jhooth hai aadha-saccha sa,
Jeevan ka aisa saathi hai
Jo paas hokar bhi paas nahi,
Koi tumse puche kaun hoon mein,
Tum bas keh dena koi khaas nahi!

Ek shakhs jo aankhon se bayaan kar jata hai
Ek shakhs jo yaadon me dhundhla sa yaad aata hai,
Yun toh uske naa hone ka mujhe koi gham nahi
Magar kabhi-kabhi wo aankhon se aansoon ban beh jata hai,
Yun toh rehta hai mere zehen me
Magar aankhon ko ab uski talaash nahi,
Koi tumse puche kaun hoon mein,
Tum bas keh dena koi khaas nahi!

Ek raaz gehra, mujhme thehra sa
Ek khwaab hai koi yunhi adhoora sa,
Yun toh mere har kisse ka wo hissa hai
Magar meri kahaani ka kirdaar nahi,
Yun toh mere har ehsaas me uska raabta hai,
Magar ab jaane do, in baaton ka koi aadhaar nahi,
Koi tumse puche kaun hoon mein,
Tum bas keh dena koi khaas nahi!

~~ Koi Khaas Nahi!

(Sahil=

Mein Zindagi Hoon!

मैं ज़िन्दगी हूँ
हर कदम जीना सिखाती हूँ!

कभी गिराती हूँ
गिरा कर उठाती हूँ,
कभी रुलाती हूँ
रुला कर हँसाती हूँ,
कभी सताती हूँ
सता कर बताती हूँ,
कभी जताती हूँ
जता कर सिखाती हूँ,
मैं ज़िन्दगी हूँ
हर कदम जीना सिखाती हूँ!

तेरी शिकायतों से वाकिफ़ हूँ
तेरी बेरुखियाँ भी उठाती हूँ,
तू समझता है खुद को जितना
तुझसे ज़्यादा तुझे पहचानती हूँ,
यूँ ना दिखा मुझे नक़ाब अपने
तेरे हर चेहरे के पीछे का राज़ मैं जानती हूँ,
कभी फुर्सत के पल ले कर मिलना मुझे
तुझे तुझसे रूबरू कराती हूँ,
मैं ज़िन्दगी हूँ
हर कदम जीना सिखाती हूँ!

मुझे मालूम है तेरी बेताबियाँ
मैं सह लूँगी तेरी रुसवाईयाँ
तेरी सारी फिक्रें महफूज़ है मेरे पास
मैं पढ़ रही हूँ तेरी खामोशियाँ,
तू यूँ ना जुदा कर खुद को मुझसे
मैं बाँट लूँगी तेरी तन्हाईयाँ,
जानती हूँ आसान नहीं है मुस्कुराना
मैं चुरा लूँगी तेरी सारी परेशानियाँ!

अभी बहुत कुछ बाकी है इस सफ़र में
तुझे सम्भाल लूँगी मैं हर कदम में,
मैं ज़िन्दगी हूँ
पूरी कहानी जानती हूँ
मैं ज़िन्दगी हूँ
हर कदम जीना सिखाती हूँ!

– साहिल
(15th November, 2018 – Thursday)

Ghar Yaad Aata Hai || Diwali

ख़्वाबों के बक्से खोलूँ
या लम्हों को पीछे मोडू,
दूर से एक धुँधला सा यार नज़र आता है
वो घर याद आता है!

हवाओं में बहती इमारतों के दरमियाँ
जब सुकून के कुछ पल तोड़ूँ,
निगाहों के रस्ते कुछ पिघलता जाता है
वो घर याद आता है!

सुबह से शाम एक सफ़र चलता है
भीड़ में तन्हा यहाँ हर कोई फिरता है,
जाने कहाँ जाना है किसको
एक ही राह पर मगर फिर भी निकलता है,
ये दिन जब थक-हार कर लौटता है
चार दीवारों में खुद को ढूँढता है,
बड़े अजनबी से ढंग है यहाँ जीने के
ज़िन्दगी से दूर रह कर ज़िन्दगी ढूँढता है,
आलीशान मकानों में अक्सर
सन्नाटा ही साथ आता है,
झूठी तसल्ली से खुद जब थक जाता हूँ
वो घर याद आता है!

एक कमरा है वहाँ, एक छोटा सा कमरा
जिसमे एक गुज़रा हुआ बचपन नज़र आता है,
दीवारें भी कभी पढ़-लिख लिया करती थी
अब वहाँ मकड़ियों का घर नज़र आता है,
एक बूढा सा मेज़ और एक टूटी हुई कुर्सी है
उन पर अब पुराने सामानों का बोझ रखा जाता है,
कुछ किताबों और पन्नों को बाँध कर रखा है एक कोने में
वक़्त के साथ कितना कुछ धूल में मिल जाता है!
वो तकिया जो बचपन के हर राज़ से वाकिफ़ था
अब मुझे पहचानने से कतराता है,
वो चादर जिसने मेरे हर दर्द को छुपाये रखा
उसमे अब ये पैर भी नहीं समाता है,
वो दरवाज़ा जो अक्सर मेरे मूड का शिकार होता था
वो दरवाज़ा भी अब कराहता है,
हर गली मोहल्ले में जो मेरी हमसफ़र बन जाती थी
वो साइकिल का हैंडल भी अब अजीब सा पेश आता है,
कहते है घरवाले सुनसान सा लगता है मेरा वो कमरा अब
मगर मैं जानता हूँ वो मुझे कितना ज़ोर से पुकारता है,
जाने कब भूला दिया उस बचपन को
वो बचपन भी अब मुझसे नज़रें चुराता है,
नाज़ुक कोमल गद्दों में अब नींद तो आ जाती है
मगर सपनों का महल तो उस चारपाई से ही नज़र आता है,
करवट बदल-बदल कर सो लेता हूँ, मगर बेचैन रातों में
वो घर याद आता है!

त्यौहारों में चाहे कोई सजे ना सजे
हर तरफ से वो घर निखर जाता है,
होली के रंगों में रंगीला
और दिवाली की रोशनी से रोशन हो जाता है,
अपनों संग झूमता है
अपनों संग खुशियाँ मनाता है,
वो सिर्फ़ एक ज़रूरत नहीं है जीने की
वो रिश्तों को एक धागे में पिरोना सिखाता है,
वो भी एक सदस्य है परिवार का
शायद इसलिये वो मकान नहीं, घर कहलाता है,
अक्सर जब देखता हूँ आसपास कितना अन्जान है सब कुछ
वो मेरा घर मुझे बहुत याद आता है!

ख़्वाबों के बक्से खोलूँ
या लम्हों को पीछे मोडू,
दूर से एक धुँधला सा यार नज़र आता है
वो घर याद आता है!

हवाओं में बहती इमारतों के दरमियाँ
जब सुकून के कुछ पल तोड़ूँ,
निगाहों के रस्ते कुछ पिघलता जाता है
वो घर याद आता है!

Wish you all a very happy and prosperous Deepawali 🙂 Thanks for reading and inspiring me always! May this Diwali brings joy, smile, pride and success to you and your family!

दीपावली और नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

– Sahil 🙂

Zindagi Aur Pani!

कुछ यूँ उछलता है पानी साहिल से टकरा कर
जैसे एक ख़्वाब दरिया से बिछड़ता है,
करवट लेती है लहरें अपनी नमी रखकर किनारों पर
ज़िन्दगी की कश्ती का रूख़ कई बार बदलता है!

गहरी सी गहराइयों में पिघलते रहते है नील से एहसास
गहरी सी गहराइयों में सहमे बैठे है कई राज़,
कभी-कभी जब कोई उन गहराइयों में उतरता है
ज़िन्दगी के कुछ अजनबी कोनों पर हलचल सी करता है!
शाम ढलते-ढलते जब उफान आता है लहरों में
रात की चांदनी में जाने कितने सफ़हे ज़िन्दगी के पलटता है!
ये पानी सिर्फ पानी नहीं…
रगों में बहते एहसासों का एक कुदरती करिश्मा है!!!

चढ़ती-उतरती लहरों में एक सरगम सी सुनाई देती है
रूही समंदर के छल्लों में जैसे कोई गुस्ताखियाँ करता है,
चेहरे को छूती सर्द फ़िज़ाओं में
जैसे यादों का एक कारवाँ छू कर गुज़रता है!
ठहर जाती है ज़िन्दगी वहीं उन फ़िज़ाओं में आँखें मीचे
खो जाती है साँसें कहीं उन धड़कनों की बढ़ती गूँज के पीछे!
ये पानी सिर्फ पानी नहीं…
यादों के शहर की तरफ खींचता एक जादुई नग़मा है!!!

खामोशियों और तन्हाइयों का इकलौता सहारा है
ज़िन्दगी के कोरे पन्नों में अनकही दास्ताँ ढूंढता है,
अन्जानी सी एक नमी इन पलकों से उठा कर
नैनों के समंदर की खामोश तन्हाईयाँ सुनता है!
टूट कर बिखर जाती है ज़िन्दगी उसकी बाहों में
ज़र्रे-ज़र्रे को समेट कर फिर से ज़िन्दगी में ढलता है!
ये पानी सिर्फ पानी नहीं…
रिश्तों और एहसासों की दुनिया में एक बहता फरिश्ता है!!!

कुछ यूँ उछलता है पानी साहिल से टकरा कर
जैसे एक ख़्वाब दरिया से बिछड़ता है,
करवट लेती है लहरें अपनी नमी रखकर किनारों पर
ज़िन्दगी की कश्ती का रूख़ कई बार बदलता है!
ये पानी सिर्फ़ पानी नहीं…
ज़िन्दगी के सफहों पर तैरते लफ़्ज़ों में जज़्बातों का इशारा है,
ये पानी सिर्फ़ पानी नहीं…
बहती हुई ज़िन्दगी से मिलते नए-पुराने साहिलों का खूबसूरत किनारा है!!!

~ साहिल
(14th March, 2017 – Tuesday)

क्या ये कहानी ऐसे ही लिखनी थी!

हर इक मोड़ पर रुक कर सोचता हूँ अक्सर
क्या राहें यहीं से बदलनी थी,
किनारों पर छूटी कश्तियों से पूछता हूँ
क्या लहरें यहीं से पलटनी थी,
ज़िन्दगी के सफ़र में
बस यूँही मैं चल दिया था,
कुछ देर ठहर कर अब खुद से पूछता हूँ
क्या ये कहानी ऐसे ही लिखनी थी!

बचपन में जो ख़्वाहिशें बुनी थी
क्या वो यूँही अन्जान रहनी थी,
जिन अपनों से ये दुनिया अपनी लगी थी
क्या वो अपनों से अलग ही होनी थी,
जिन यारों संग हर खुशी मुक़म्मल लगती
क्या उन खुशियों में उनकी ही कमी रहनी थी,
इन आँखों में जो हसरतें जागे रहती थी रात भर
क्या वो पानी संग अधूरी ही बहनी थी,
सोचा ना था कि सोचना पड़ेगा इक दिन
क्या ये कहानी ऐसे ही लिखनी थी!

अल्फाज़ों की तालीम लेकर
ज़िन्दगी चल पड़ी थी,
तजुर्बे अभी बाकी थे मगर
कहानी निकल पड़ी थी,
कुछ लम्हें, कुछ चेहरे, कुछ ख़्वाब, कुछ अंधेरे
हर इक पन्ने पर जैसे एक नयी पहेली लिखी थी,
कभी सुलझ जाती, कभी उलझ जाती
मगर हर बार ये वक़्त के साथ बदल जाती,
वक़्त का क्या है वो गुज़र जाता
पीछे अधूरी कितनी गिरहें रह जाती,
बस उन्हीं गिरहों में थोड़ा-थोड़ा रह जाता
खुद से थोड़ा-थोड़ा खुद छूट जाता,
हर सफ़हे पर ये कहानी यूँही छूट जाती
ज़िन्दगी जैसे वक़्त के साथ बदलती चली जाती,
वक़्त की ताक़त का अंदाजा अब इस बात से होता है
उसके आगे मेरी हार होनी तय थी,
कलम रख कर कोरे कागज़ पर हर बार यही सोचता हूँ
क्या ये कहानी ऐसे ही लिखनी थी!

अब ना कोई फ़र्क पड़ता है
ना ही कोई एहसास बिलखता है,
मिलना, बिछड़ना और यादों में रह जाना
यहीं सिलसिला हर बार होता है,
जान लिया है जीने का सलीक़ा शायद
ज़िन्दगी में यूँही होता है,
खामोशी पहन कर मुस्कुरा लेता हूँ
हर चेहरे पर नक़ाब होता है,
जो आज है बस यहीं है
कल किसे पता कहाँ होना है,
गँवारा नहीं मगर लिख लेता हूँ यही सोच कर
शायद हर कहानी में ऐसा ही होता है!

हर इक मोड़ पर रुक कर सोचता हूँ अक्सर
शायद राहें यहीं से बदलनी थी,
किनारों पर छूटी कश्तियों से कहता हूँ
ये लहरें भी यहीं से पलटनी थी,
ज़िन्दगी के सफ़र में
बस यूँही मैं चल देता हूँ,
कुछ देर ठहर कर अब खुद से कह लेता हूँ
ये कहानी ऐसे ही लिखनी थी!

कैद लम्हें है कुछ कागज़ के पन्नों में
क्या तस्वीरों में ही बस खुशियाँ रहनी थी,
लिख लेता हूँ अक्सर एहसासों को
क्या कागज़ पर ही नज़दीकियाँ रहनी थी!
जब भी कभी पीछे मुड़ कर देखता हूँ
यही सोचता हूँ कि क्या राहें वहीं से मुड़नी थी,
हर बार जब भी ज़िन्दगी से मिलता हूँ
यही पूछता हूँ कि क्या ये कहानी ऐसे ही लिखनी थी!

क्या ये कहानी ऐसे ही लिखनी थी!!!

– साहिल
(27th September, 2018 – Thursday)

Insaan

इन्सान की फितरत है हर एक बात पर टिप्पणी करना
अपने नज़रिये में रखकर दुनिया की हर एक आदत को परखना,
खुद पर बीती तो उसे बढ़ा-चढ़ा कर कहना
किसी और पर बीती तो उसे मज़ाक का विषय समझना,
तर्क देना हर एक सवाल पर
जवाब मिले तो उसे तोहमत समझना,
अहमियत यहाँ बस बेवजह की शिकायतों की है
बेहतर इरादों पर हमेशा बेवकूफी की मोहर रखना!

कितनी ख़्वाहिशें जल जाती है हर रोज़
कितने ही ख़्याल धुआँ-धुआँ हो जाते है,
आँसू गिरते है तो कमज़ोरी समझी जाती है
कितने ही कतरे डर-डर के बहते है,
मशीनों के दम पर अब चल रहा है हर कोई यहाँ
आँखों के सामने भी हर चीज़ नज़रअंदाज़ हो जाती है,
रिश्ते है कि बस कुछ पलों में बदल जाते है
अब सफ़र-ऐ-ज़ीस्त की बातें बस कहानियों में कही-सुनी जाती है!

कहना आसान है यहाँ
सुनना कोई पसन्द नहीं करता,
बस इसी कहने और सुनने के फासलों में
अक्सर गिरहें उलझती जाती है,
कड़वा लगेगा, मगर सच कहता हूँ, झूठ ना समझना…
मुश्किल हो चला है किसी पर हक़ जताना, क्योंकि अब इन्सान यहाँ इन्सान सा नहीं लगता!

– Sahil
(August 2018)

Journey of Life!

शुरुआत से अन्त तक का ये जो सफ़र है
बस इसी के दरमियाँ कहीं ज़िन्दगी है!
कहाँ से शुरू हो कर
जाने कहाँ रुकती है,
राह के हर मोड़ पर
टूट कर फिर जुड़ती है,
हर बार टूट कर जुड़ने में कुछ नया जो जुड़ जाता है
और जो थोड़ा सा छूट जाता है
बस उन टुकडों में ही ज़िन्दगी है!

छोटे-छोटे कदमों से
ख्वाहिशों के फ़लक छूती है,
मासूमियत भरी आँखों से
मोहब्बत के रंग भरती है,
काँधे पर रख कर कुछ कोरे सफ़हे
अन्जाने ही सही एक सफ़र लिखती है,
मिलकर बिछड़ना और फिर से मिलना
जाने कितने पराये अपने करती है,
आसान नहीं है कुछ नया बन जाना
खुद को अक्सर खुद में भर लेती है,
जीने का दस्तूर है इसलिये शायद
किसी तरह हँस कर आगे बढ़ लेती है,
शुरुआत ज़रूरी है, और ये एहसास भी
क्योंकि शुरू-शुरू में ज़रूरतों का एहसासों में ढलना बहुत ज़रूरी होता है!

मगर ये जो अन्त है
ये बड़ा ही आसान है,
किसी गहरे सवाल का
बहुत ही वाजिब सा जवाब है,
कभी टूट जाता है, या छूट जाता है
इस अन्त में अक्सर कोई ख़्याल सो जाता है,
ना ही किसी की ज़रूरत पड़ती है
ना ही किसी से घबराता है,
और अन्त में तो किसे परवाह
एहसास भी भटकते हुए खो जाता है,
इस अन्त में बहुत छूट है
बेवजह के रिवाज़ों से ये बहुत दूर है,
बस एक किनारा है
जिसके आगे कुछ नहीं,
जो है, बस यहीं तक है
और यहीं तक रहेगा,
अन्त अनुयायी है शुरुआत का, और निकम्मा भी
क्योंकि अन्त में अन्त के सिवाय कुछ ज़रूरी नहीं होता!

शुरुआत से अन्त तक का ये जो सफ़र है
बस इसी के दरमियाँ कहीं ज़िन्दगी है!

-Sahil
(10th August, 2018 – Friday)