Mein Parayi!

मैं पराई
सब कुछ छोड़ कर आई,
अन्जान दीवारों में
नई ज़िन्दगी सजाई!

बचपन की मासूमियत
माँ की दुलारियाँ,
पापा का लाड़
और भाई-बहनों का प्यार,
वो दीवारें जो सहेली थी मेरी
और गलियाँ जिनमें हँसी गूँजती थी मेरी,
वो आईना जो हर सुबह देख मुस्कुराता था
और वो चौखट जहाँ शामों से याराना था,
मैं उन सभी आदतों को
बहला-फुसला कर तन्हा छोड़ आई!
मैं पराई!

बाबूल के काँधे पर
मैं कितनी दफ़ा आँसू बहाई,
पलकें मीच कर हर बार की तरह
जाने कितनी हसरतों को किनारे कर आई,
दुनिया की रीत समझ कर
मैने भी ये प्रीत निभाई,
लाल जोड़े में लाली भर कर
एक बेटी होने का फर्ज़ अदा कर आई,
ये मुस्कुराहट सबको अच्छी लगी
कौन जाने इसके पीछे की सच्चाई,
किसी तरह अपना लिया खुद को
मैं खुद को खुद में कहीं भूल आई!
मैं पराई!

नये रिश्तों को मैं रिझाऊँ
नये आँगन में मैं ढल जाऊँ,
जिन हाथों ने पाला-सँवारा
उन हाथों से उतर कर किसी की लाज बन जाऊँ,
साक्षी मान कर समाज की आँखों को
मैं सारे तौर-तरीकों में बंध जाऊँ,
कुछ सपने और कुछ ख़्वाबों से पहले
मैं दुनिया भर के रंग लगाऊँ,
माथे पर रख कर लहू ख़्वाहिशों का
मैं किसी के नाम में अपना नाम मिलाऊँ,
हदों में रह कर इन गिरहों की
मैं किसी और का हक़ बन जाऊँ,
दाम लगाये ये दुनिया सारी
लेकिन बाज़ारी मैं कहलाऊँ,
वाजिब नहीं ये दिखावे ज़िन्दगी के
मगर फिर भी मैं चुप हो जाऊँ,
किस्मत का लिखा लेख मान कर
अब हर पल खुद का मन बहलाऊँ,
हाथों पर रखी लकीरों में
कुछ उम्मीदों के पल की उम्मीद कर जाऊँ,
कुछ कतरें गिरा कर, चावल उछाल कर
मैं जैसे ज़िन्दगी वही छोड़ आई,
अब आईने में देखती हूँ खुद को
तो जाने कितनी दूरियाँ निगाहों में समाई!
मैं पराई!

ना माइका, ना ससुराल
ना ही मेरी कोई परछाई,
हर खुशी में खुश हो जाऊँ, हर दुख में नम हो जाऊँ
मेरी कहीं क्या इकाई,
कितने बंधन में बंधी हुई
कितनी साँसें अन्दर से भर आई,
कह ना सकूँ अब किसी से
जाने मेरी कहाँ रिहाई,
ऐ खुदा, एक बात बता
ये कैसी रीत तूने बनाई,
बेटा बन जाये राज दुलारा
और बेटी की कर दी डोली में विदाई!
मैं पराई!

मैं पराई
सब कुछ छोड़ कर आई,
अन्जान दीवारों में
नई ज़िन्दगी सजाई!
मैं पराई, मैं पराई!

#PoolofPoems

~ साहिल
(13th December, 2018 – Thursday)

Bas Ab Aur Nahi Hota, Mein Thak Chuki Hoon!

बस, अब और नहीं होता, मैं थक चुकी हूँ,
खुद से, अपनों से, लोगों से…

मैं थक चुकी हूँ!

दिल है कि धड़कता रहता है,
जाने किस धुन में टहलता रहता है,
ना कोई फिक्र इसे, ना परवाह दुनिया की
कुछ एहसासों की गलियों में घुमता रहता है।
थक चुकी हूँ दिल की बेफ़िक्री से, थक चुकी हूँ खुद से लड़ते-लड़ते,
बस, अब और नहीं होता खुद से लड़ना, मैं थक चुकी हूँ दिल की सुनते-सुनते!

शिकायतें लोगों की कम नहीं होती
वक़्त की ज़रूरतें यहाँ ख़त्म नहीं होती,
उलझी हुई हूँ सबको सुलझाने में
खुद की उलझनें है कि ख़त्म नहीं होती।
थक चुकी हूँ उलझनों में उलझ कर, थक चुकी हूँ खुद को मनाते-मनाते,
बस, अब और नहीं होता किसी को मनाना, थक चुकी हूँ रिश्ते निभाते-निभाते!

कोशिश करती हूँ कि सब कुछ संभाल लूँ
वक़्त और हालात में खुद को ढाल लूँ,
मगर कहीं ना कहीं कुछ कमी रह ही जाती है
समझकर, संभाल कर सब कुछ भी, सिर्फ अपनों की नाराज़गी हाथ आती है।
थक चुकी हूँ नाराज़गियों से, खुद को समझना भूल गई हूँ,
बस अब और नहीं होता किसी को समझना, थक चुकी हूँ सब कुछ संभालते-संभालते!

थम जाना चाहती हूँ खुद के साथ
कुछ देर खुद से मिलना चाहती हूँ,
जीना चाहती हूँ खुद के साथ
खुद पर कुछ खुशियाँ लुटाना चाहती हूँ।
थक चुकी हूँ खुद से भागते-भागते, थक चुकी हूँ खुशियाँ लुटाते-लुटाते,
बस अब और नहीं होता खुशियाँ लुटाना, थक चुकी हूँ खुद को छुपाते-छुपाते!

बस, अब और नहीं होता, मैं थक चुकी हूँ,
खुद से, अपनों से, लोगों से…

मैं थक चुकी हूँ!

– Sahil

(June’ 17)

Zindagi Abhi Baaki Hai!


जकड़ी हुई हूँ
कुछ रिश्तों के दरमियाँ,
उलझी सी रहती हूँ
खुद से हूँ लापता,
जाने क्या सही है, जाने क्या गलत
ढूंढती हूँ ख्यालों के मेले में, जाने कौनसी हसरत!

ड़र है कि दिल में छुप कर बैठा है
लबों पर कितने ही राज़ दबाये ठहरा है,
ना किसी से कुछ कहा ही जाता है
ना ही खुद को समझाने का जी चाहता है,
बस दिल करता है छोड़ के सब कुछ, तोड़ के सारे बंधन
गिरहों की कैद से आज़ाद हो जाऊ!

ना फ़िक्र हो दुनिया की
ना किसी रिश्ते की ज़रूरत हो,
ये दिल बस साँसें भरता रहे
और ना किसी एहसास की कुर्बत हो,
एक शाम एक किनारे पर सारे कतरें गिरा कर
उन जज़्बातों को कहीं दूर छोड़ आऊ,
खो दिया है खुद को बचपन से निकल कर
ज़रा ढूंढ कर खुद को, खुद से मिल आऊ!

अजनबी सी बेबसी बैठी है दिल में
अजीब सी खामोशी में ढलने लगी हूँ,
जानती हूँ सब कुछ जाने क्यों फिर भी
अन्जान बनने की कोशिश करने लगी हूँ,
ये लम्हें जो बिखरे पड़े है राहों में
इन्हें समेट कर अपने साथ ले जाऊ,
खुद से मिलकर इन लम्हों में
अपने कुछ नये आशियाने सजाऊं!

ना कुछ उलझनें हो, ना कोई शिक़वे
बस खुद को खुद के करीब ले जाऊ,
रिश्तों की सतहों पर अक्सर फिसल जाती हूँ
ज़रा संभल कर जीना सीख जाऊ!

ज़रा सी उलझी, ज़रा जकड़ी हुई, खुद से दूर ज़रूर हूँ मैं
मगर ज़िन्दगी अभी बाकी है, खुशियाँ आगे काफ़ी है, ये भी जानती हूँ मैं।
ज़िन्दगी फिलहाल पहेली है, मगर बहुत ही अच्छी सहेली है
दिल खोल कर ज़िन्दगी से गले मिलना चाहती हूँ मैं,
बस यहीं सोच कर जी लेती हूँ अक्सर,
कि ज़िन्दगी से आशना अभी बाकी है,
ज़िन्दगी मुझमे अभी बाकी है!

– Sahil

(June’ 17)